विद्यापति कृतिघ्न एवं जीवन : एक परिचय



मैथिल कवि कोकिल, रसासिद्ध कवि विद्यापति, तुलसी, सूर, कबूर, मीरा सभी से पहले के कवि हैं। अमीर खुसरो यद्यपि इनसे पहले हुए थे। इनका संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश एवं मातृ भाषा मैथिली पर समान अधिकार था। विद्यापति की रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट, एवं मैथिली तीनों में मिलती हैं।

देसिल वयना अर्थात् मैथिली में लिखे चंद पदावली कवि को अमरच्व प्रदान करने के लिए काफी है। मैथिली साहित्य में मध्यकाल के तोरणद्वार पर जिसका नाम स्वर्णाक्षर में अंकित है, वे हैं चौदहवीं शताब्दी के संघर्षपूर्ण वातावरण में उत्पन्न अपने युग का प्रतिनिधि मैथिली साहित्य-सागर का वाल्मीकि-कवि कोकिल विद्यापति ठाकुर। बहुमुखी प्रतिमा-सम्पन्न इस महाकवि के व्यक्तित्व में एक साथ चिन्तक, शास्रकार तथा साहित्य रसिक का अद्भुत समन्वय था। संस्कृत में रचित इनकी पुरुष परीक्षा, भू-परिक्रमा, लिखनावली, शैवसर्वश्वसार, शैवसर्वश्वसार प्रमाणभूत पुराण-संग्रह, गंगावाक्यावली, विभागसार, दानवाक्यावली, दुर्गाभक्तितरंगिणी, गयापतालक एवं वर्षकृत्य आदि ग्रन्थ जहाँ एक ओर इनके गहन पाण्डित्य के साथ इनके युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा स्वरुप का साक्षी है तो दूसरी तरफ कीर्तिलता, एवं कीर्तिपताका महाकवि के अवह भाषा पर सम्यक ज्ञान के सूचक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक साहित्यिक एवं भाषा सम्बन्धी महत्व रखनेवाला आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का अनुपम ग्रन्थ है। परन्तु विद्यापति के अक्षम कीर्ति का आधार, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, है मैथिली पदावली जिसमें राधा एवं कृष्ण का प्रेम प्रसंग सर्वप्रथम उत्तरभारत में गेय पद के रुप में प्रकाशित है। इनकी पदावली मिथिला के कवियों का आदर्श तो है ही, नेपाल का शासक, सामंत, कवि एवं नाटककार भी आदर्श बन उनसे मैथिली में रचना करवाने लगे बाद में बंगाल, असम तथा उड़ीसा के वैष्णभक्तों में भी नवीन प्रेरणा एवं नव भावधारा अपने मन में संचालित कर विद्यापति के अंदाज में ही पदावलियों का रचना करते रहे और विद्यापति के पदावलियों को मौखिक परम्परा से एक से दूसरे लोगों में प्रवाहित करते रहे।

कवि कोकिल की कोमलकान्त पदावली वैयक्तिकता, भावात्मकता, संश्रिप्तता, भावाभिव्यक्तिगत स्वाभाविकता, संगीतात्मकता तथा भाषा की सुकुमारता एवं सरलता का अद्भुत निर्देशन प्रस्तुत करती है। वर्ण्य विषय के दृष्टि से इनकी पदावली अगर एक तरफ से इनको रससिद्ध, शिष्ट एवं मर्यादित श्रृंगारी कवि के रुप में प्रेमोपासक, सौन्दर्य पारसी तथा पाठक के हृदय को आनन्द विभोर कर देने वाला माधुर्य का स्रष्टा, सिद्धहस्त कलाकार सिद्ध करती है तो दूसरी ओर इन्हें भक्त कवि के रुप में शास्रीय मार्ग एवं लोकमार्ग दोनों में सामंजस्य उपस्थित करने वाला धर्म एवं इष्टदेव के प्रति कवि का समन्वयात्मक दृष्टिकोण का परिचय देने वाला एक विशिष्ट भक्त हृदय का चित्र उपस्थित करती है साथ ही साथ लोकाचार से सम्बद्ध व्यावहारिक पद प्रणेता के रुप में इनको मिथिला की सांस्कृतिक जीवन का कुशल अध्येता प्रमाणित करती है। इतना ही नहीं, यह पदावली इनके जीवन्त व्यक्तित्व का भोगा हुआ अनुभूति का साक्षी बन समाज की तात्कालीन कुरीति, आर्थिक वैषम्य, लौकिक अन्धविश्वास, भूत-प्रेत, जादू-टोना, आदि का उद्घाटक भी है। इसके अलावे इस पदावली की भाषा-सौष्ठव, सुललित पदविन्यास, हृदयग्राही रसात्मकता, प्रभावशाली अलंकार, योजना, सुकुमार भाव व्यंजना एवं सुमधुर संगीत आदि विशेषता इसको एक उत्तमोत्तम काव्यकृति के रुप में भी प्रतिष्ठित किया है। हालांकि यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि महाकवि विद्यापत् अपनी अमर पदावली के रचना के लिए अपने पूर्ववर्ती संस्कृत कवियों खासकर भारवि, कालिदास, जयदेव, हर्ष अमरुक, गोवर्द्धनाचार्य आदि से कम ॠणि नहीं हैं। क्योंकि जिस विषयों को महाकवि ने अपनी पदावली में प्रस्तुत किया वे विषय पूर्व से ही संस्कृत के कवियों की रचनाओं में प्रस्तुत हो चुका था । विद्यापति की मौलिकता इसमें निहित है कि इन्होने उन रचनाओं की विषय उपमा अलंकार परिवेश आदि का अन्धानुकरण न कर उसमें अपने दीर्ध जीवन का महत्वपूर्ण एवं मार्मिक नानाविध अनुभव एवं आस्था को अनुस्यूत कर अप्रतिम माधुर्य एवं असीम प्राणवत्ता से युक्त मातृभाषा में यो प्रस्तुत किया कि वह इनके हृदय से न:सृक वल्कु लबजही मानव के हृदय में प्रवेश कर जाता है। यही कारण है कि महाकवि की काव्य प्रतिमा की गुञ्ज मात्र मिथिलांचल तक नहीं अपितु समस्त पूर्वांचल में, पूर्वांचल में भी क्यों समस्त भारतवर्ष में, समस्त भारतवर्ष में ही क्यों अखिल विश्व में व्याप्त है। राजमहल से लेकर पर्णकुटी तक में गुंजायमान विद्यापति का कोमलकान्त पदावली वस्तुत: भारतीय साहित्य की अनुपम वैभव है।

विद्यापति के प्रसंग में स्वर्गीय डॉ. शैलेन्द्र मोहन झा की उक्ति वस्तुत: शतप्रतिशत यथार्थ हैष वे लिखते हैं:

"नेपालक पार्वत्य नीड़ रटओ अथवा कामरुपक वनवीचिका, बंगालक शस्य श्यामला भूमि रहओ अथवा उतकलक नारिकेर निकुंज, विद्यापतिक स्वर सर्वत्र समान रुप सँ गुंजित होइत रहैत छनि। हिनक ई अमर पदावली जहिना ललनाक लज्जावृत कंठ सँ, तहिना संगीतज्ञक साधित स्वरसँ, राजनर्तकीक हाव-भाव विलासमय दृष्टि निक्षेपसँ, भक्त मंडलीक कीर्तन नर्तन सँ, वैष्णव-वैश्णवीक एकताराक झंकारसँ नि:सृत होइत युग-युगसँ श्रोतागणकें रस तृप्त करैत रहल अछि एवं करत। मिथिला मैथिलक जातीय एवं सांस्कृतिक गरिमाक मान-बिन्दु एवं साहित्यिक जागरणक प्रतीक चिन्हक रुप में आराध्य एवं आराधित महाकवि विद्यापतिक रचना जरिना मध्यकालीन मैथिली साहित्यिक अनुपम निधि आछि तहिना मध्यकाल में रचित समस्त मैथिली साहित्य सेहो हिनके प्रभावक एकान्त प्रतिफल अछि।"

महाकवि विद्यापति का जन्म वर्तमान मधुबनी जनपद के बिसपू नामक गाँव में एक सभ्रान्त मैथिल ब्राह्मण गणपति ठाकुर (इनके पिता का नाम) के घर हुआ था। बाद में यसस्वी राजा शिवसिंह ने यह गाँव विद्यापति को दानस्वरुप दे दिया था। इस दानपत्र कि प्रतिलिपि आज भी विद्यापति के वंशजों के पास है जो आजकल सौराठ नामक गाँव में रहते हैं। उपलब्ध दस्तावेजों एवं पंजी-प्रबन्ध की सूचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाकवि अभिनव जयदेव विद्यापति का जन्म ऐसे यशस्वी मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जिस पर विद्या की देवी सरस्वती के साथ लक्ष्मी की भी असीम कृपा थी। इस विख्यात वंश में (विषयवार विसपी) एक-से-एक विद्धान्, शास्रज्ञ, धर्मशास्री एवं राजनीतिज्ञ हुए। महाकवि के वृहृप्रपितामह देवादिव्य कर्णाटवंशीय राजाओं के सन्धि, विग्रहिक थे तथा देवादिव्य के सात पुत्रों में से धीरेश्वर, गणेश्वर, वीरेश्वर

आदि महराज हरिसिंहदेव की मन्त्रिपरिषद् में थे। इनके पितामह जयदत्त ठाकुर एवं पिता गणपति ठाकुर राजपण्डित थे। इस तरह पाण्डिल्य एवं शास्रज्ञान कवि विद्यापति को सहज उत्तराधिकार में मिला था। अनेक शास्रीय विषयों पर कालजयी रचना का निर्माण करके विद्यापति ने अपने पूर्वजों की परम्परा को ही आगे बढ़ाया।

ऐसे किसी भी लिखित प्रमाण का अभाव है जिससे यह पता लगाया जा सके कि महाकवि कोकिल विद्यापति ठाकुर का जन्म कब हुआ था। यद्यपि महाकवि के एक पद से स्पष्ट होता है कि लक्ष्मण-संवत् २९३, शाके १३२४ अर्थात् मन् १४०२ ई. में देवसिंह की मृत्यु हुई और राजा शिवसिंह मिथिला नरेश बने। मिथिला में प्रचलित किंवदन्तियों के अनुसार उस समय राजा शिवसिंह की आयु ५० वर्ष की थी और कवि विद्यापति उनसे दो वर्ष बड़े, यानी ५२ वर्ष के थे। इस प्रकार १४०२-५२उ१३५० ई. में विद्यापति की जन्मतिथि मानी जा सकती है। लक्ष्मण-संवत् की प्रवर्त्तन तिथि के सम्बन्ध में विवाद है। कुछ लोगों ने सन् ११०९ ई. से, तो कुथ ने १११९ ई. से इसका प्रारंभ माना है। स्व. नगेन्द्रनाथ गुप्त ने लक्ष्मण-संवत् २९३ को १४१२ ई. मानकर विद्यापत् की जन्मतिथि १३६० ई. में मानी है। ग्रिपर्सन और महामहोपाध्याय उमेश मिश्र की भी यही मान्यता है। परन्तु श्रीब्रजनन्दन सहाय "ब्रजवल्लभ", श्रीराम वृक्ष बेनीपुरी, डॉ. सुभद्र झा आदि सन् १३५० ई. को उनका जन्मतिथि का वर्ष मानते हैं। डॉ. शिवप्रसाद के अनुसार "विद्यापति का जन्म सन् १३७४ ई. के आसपास संभव मालूम होता है।" अपने ग्रन्थ विद्यापति की भूमिका में एक ओर डॉ. विमानविहारी मजुमदार लिखते है कि "यह निश्चिततापूर्वक नहीं जाना जाता है कि विद्यापति का जन्म कब हुआ था और वे कितने दिन जीते रहे" (पृ। ४३) और दूसरी ओर अनुमान से सन् १३८० ई. के आस पास उनकी जन्मतिथि मानते हैं।

हालांकि जनश्रुति यह भी है कि विद्यापति राजा शिवसेंह से बहुत छोटे थे। एक किंवदन्ती के अनुसार बालक विद्यापति बचपन से तीव्र और कवि स्वभाव के थे। एक दिन जब ये आठ वर्ष के थे तब अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ शिवसेंह के राजदरबार में पहुँचे। राजा शिवसिंह के कहने पर इन्होने निम्नलिखित दे पंक्तियों का निर्माण किया:

पोखरि रजोखरि अरु सब पोखरा।
राजा शिवसिंह अरु सब छोकरा।।

यद्यपि महाकवि की बाल्यावस्था के बारे में विशेष जानकारी नहीं है। विद्यापति ने प्रसिद्ध हरिमिश्र से विद्या ग्रहण की थी। विख्यात नैयायिक जयदेव मिश्र उर्फ पक्षधर मिश्र इनके सहपाठी थे। जनश्रुतियों से ऐसा ज्ञात होता है।

लोगों की धारणा यह है कि महाकवि अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ बचपन से ही राजदरबार में जाया करते थे। किन्तु चौदहवीं सदी का शेषार्ध मिथिला के लिए अशान्ति और कलह का काल था। राजा गणेश्वर की हत्या असलान नामक यवन-सरदार ने कर दी थी। कवि के समवयस्क एवं राजा गणेश्वर के पुत्र कीर्तिसिंह अपने खोये राज्य की प्राप्ति तथा पिता की हत्या का बदला लेने के लिए प्रयत्नशील थे। संभवत: इसी समय महाकवि ने नसरतशाह और गियासुद्दीन आश्रमशाह जैसे महपुरुषों के लिए कुछ पदों की रचना की। राजा शिवसिंह विद्यापति के बालसखा और मित्र थे, अत: उनके शासन-काल के लगभग चार वर्ष का काल महाकवि के जीवन का सबसे सुखद समय था। राजा शिवसिंह ने उन्हें यथेष्ठ सम्मान दिया। बिसपी गाँव उन्हें दान में पारितोषिक के रुप में दिया तथा 'अभिनवजयदेव' की उपाधि से नवाजा। कृतज्ञ महाकवि ने भी अपने गीतों द्वारा अपने अभिन्न मित्र एवं आश्रयदाता राजा शिवसिंह एवं उनकी सुल पत्नी रानी लखिमा देवी (ललिमादेई) को अमर कर दिया। सबसे अधिक लगभग २५० गीतों में शिवसिंह की भणिता मिलती है।

किन्तु थोड़े ही समय में ही पुन: मिथिला पर दुर्दैव का भयानक कोप हुआ। यवनों के आसन्न आक्रमण का आभाष पाकर राजा शिवसिंह ने विद्यापति के संरक्षण में अपने परिजनों को नेपाल-तराई-स्थित द्रोणवार के अधिपति पुरादित्य के आश्रम में रजाबनौली भेज दिया। युद्ध क्षेत्र में सम्भवत: शिवसिंह मारे गये। विद्यापति लगभग १२ वर्ष तक पुरादित्य के आश्रम में रहे। वहीं इन्होने लिखनावली की रचना की उस समय के एक पद से ज्ञात होता है कि उनके लिए यह समय बड़ा दु:खदायी था। शिवसिंह के छोटे भाई पद्मसिंह को राज्याधिकार मिलने पर औइनवार-वंशीय राजाओं का आश्रय पुन: महाकवि को प्राप्त हुआ और वे मिथिला वापस लौट आए। पद्मसिंह के केवल एक वर्ष के शासन के बाद उनकी धर्मपत्नी विश्वासदेवी मिथिला के राजसिंहासन पर बैठी, जिनके आदेश से उन्होने दो महत्वपूर्ण ग्रन्थः शैवसर्वस्वसार तथा गंगावाक्यावली लिखे। विश्वासदेवी के बाद राजा नरसिंहदेव 'दपंनारायण', महारानी धीरमती, महाराज धीरसिंह 'हृदयनारायण', महाराज भैरवसिंह 'हरिनारायण' तथा चन्द्रसिंह 'रुपनारायण' के शासनकाल में महाकवि को लगातार राज्याश्रय प्राप्त होता रहा था।

जन्मतिथि की तरह महाकवि विद्यापति ठाकुर की मृत्यु के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है। इतना स्पष्ट है और जनश्रुतियाँ बताती है कि आधुनिक बेगूसराय जिला के मउबाजिदपुर (विद्यापतिनगर) के पास गंगातट पर महाकवि ने प्राण त्याग किया था। उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में यह पद जनसाधारण में आज भी प्रचलित है:

'विद्यापतिक आयु अवसान
कातिक धवल त्रयोदसि जान।'

यहाँ एक बात स्पषट करना अनिवार्य है। विद्यापति शिव एवं शक्ति दोनों के प्रबल भक्त थे। शक्ति के रुप में उन्होंने दुर्गा, काली, भैरवि, गंगा, गौरी आदि का वर्णन अपनी रचनाओं में यथेष्ठ किया है। मिथिला के लोगों में यह बात आज भी व्याप्त है कि जब महाकवि

विद्यापति काफी उम्र के होकर रुग्न हो गए तो अपने पुत्रों और परिजनों को बुलाकर यह आदेश दिया:

"अब मैं इस शरीर का त्याग करना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं गंगा के किनारे गंगाजल को स्पर्श करता हुआ अपने दीर्ध जीवन का अन्तिम सांस लूं। अत: आप लोग मुझे गंगालाभ कराने की तैयारी में लग जाएं। कहरिया को बुलाकर उस पर बैठाकर आज ही हमें सिमरिया घाट (गंगातट) ले चलें।"

अब परिवार के लोगों ने महाकवि का आज्ञा का पालन करते हुए चार कहरियों को बुलाकर महाकवि के जीर्ण शरीर को पालकी में सुलाकर सिमरिया घाट गंगालाभ कराने के लिए चल पड़े - आगे-आगे कहरिया पालकी लेकर और पीछे-पीछे उनके सगे-सम्बन्धी। रात-भर चलते-चलते जब सूर्योदय हुआ तो विद्यापति ने पूछा: "भाई, मुझे यह तो बताओं कि गंगा और कितनी दूर है?"

"ठाकुरजी, करीब पौने दो कोस।" कहरियों ने जवाब दिया। इस पर आत्मविश्वास से भरे महाकवि यकाएक बोल उठे: "मेरी पालकी को यहीं रोक दो। गंगा यहीं आएंगी।"

"ठाकुरजी, ऐसा संभव नहीं है। गंगा यहाँ से पौने दो कोस की दूरी पर बह रही है। वह भला यहाँ कैसे आऐगी? आप थोड़ी धैर्य रक्खें। एक घंटे के अन्दर हम लोग सिमरिया घाट पहुँच जाएंगे।"

"नहीं-नहीं, पालकी रोके" महाकवि कहने लगे, "हमें और आगे जाने की जरुरत नहीं। गंगा यहीं आएगी। आगर एक बेटा जीवन के अन्तिम क्षण में अपनी माँ के दर्शन के लिए जीर्ण शरीर को लेकर इतने दूर से आ रहा है तो क्या गंगा माँ पौने दो कोस भी अपने बेटे से मिलने नहीं आ सकती? गंगा आएगी और जरुर आएगी।"

इतना कहकर महाकवि ध्यानमुद्रा में बैठ गए। पन्द्रह-बीस मिनट के अन्दर गंगा अपनी उफनती धारा के प्रवाह के साथ वहाँ पहुँच गयी। सभी लोग आश्चर्य में थे। महाकवि ने सर्वप्रथम गंगा को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया, फिर जल में प्रवेश कर निम्नलिखित गीत की रचना की:

बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे।।
करनोरि बिलमओ बिमल तरंगे।
पुनि दरसन होए पुनमति गंगे।।
एक अपराध घमब मोर जानी।
परमल माए पाए तुम पानी।।
कि करब जप-तप जोग-धेआने।
जनम कृतारथ एकहि सनाने।।
भनई विद्यापति समदजों तोही।
अन्तकाल जनु बिसरह मोही।।

इस गंगा स्तुति का अर्थ कुछ इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:

"हे माँ पतित पावनि गंगे, तुम्हारे तट पर बैठकर मैंने संसार का अपूर्व सुख प्राप्त किया। तुम्हारा सामीप्य छोड़ते हुए अब आँखों से आँसू बह रहे हैं। निर्मल तरंगोवानी पूज्यमती गंगे! मैं कर जोड़ कर तुम्हारी विनती करता हूँ कि पुन: तुम्हारे दर्शन हों।"

ठमेरे एक अपराध को जानकर भी समा कर देना कि हे माँ! मैंने तुम्हें अपने पैरों से स्पर्श कर दिया। अब जप-तप, योग-ध्यान की क्या आवश्यकता? एक ही स्नान में मेरा जन्म कृतार्थ हो गया। विद्यापति तुमसे (बार-बार) निवेदन करते है कि मृत्यु के समय मुझे मत भूलना।"

इतना ही नहीं, कवि विद्यापति ने अपनी पुत्री दुल्लहि को सम्बोधित करते हुए गंगा नदी के तट पर एक और महत्वपूर्ण गीत का निर्माण किया। यह गीत कुछ इस प्रकार है:

दुल्लहि तोर कतय छथि माय।
कहुँन ओ आबथु एखन नहाय।।
वृथा बुझथु संसार-विलास।
पल-पल नाना भौतिक त्रास।।
माए-बाप जजों सद्गति पाब।
सन्नति काँ अनुपम सुख आब।।
विद्यापतिक आयु अवसान।
कार्तिक धबल त्रयोदसि जान।।

इसका सारांश यह है कि महाकवि वयोवद्ध हो चुके हैं। अपने जीवन का अंत नजदीक देखकर इस नश्वर शरीर का त्याग करने के पवित्र तट पर अपने सखा-सम्बन्धियों के साथ पहुँच गये हैं। पूज्यशलीला माँ गंगा अपने इस महान यशस्वी पुत्र को अंक में समेट लेने के लिए प्रस्तुत हो गई हैं। इसी क्षण महाकवि विद्यापति अपनी एकलौती पुत्री को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, अही दुलारि, तुम्हारी माँ कहाँ है.? कहो न कि अब जल्दी से स्नान करके चली आएं। भाई, देरी करने से भला क्या होगा? इस संसार के भोग-विलास आदि को व्यर्थ समझें। यहाँ पल-पल नाना प्रकार का भय, कष्ट आदि का आगमन होता रहता है। अगर माता-पिता को सद्गति मिल जाये तो उसके कुल और परिवार के लोगों को अनुपम सुख मिलना चाहिए। क्या तुम्हारी माँ नहीं जानती हैं जो आज जति पवित्र कार्तिक युक्त त्रयोदशी तिथि है। अब मेरे जीवन का अन्त निश्चित है।" इस तरह से गंगा के प्रति महाकवि ने अपनी अटूट श्रद्धा दिखाया। और इसके बाद ही उन्होंने जीवन का अन्तिम सांस इच्छानुसार गंगा के किनारे लिया।

नगेन्द्रनाथ गुप्त सन् १४४० ई. को महाकवि की मृत्यु तिथि का वर्ष मानते हैं। म.म. उमेश मिश्र के अनुसार सन् १४६६ ई. के बाद तक भी विद्यापति जीवित थे। डॉ. सुभद्र झा का मानना है कि "विश्वस्त अभिलेखों के आधार पर हम यह कहने की स्थिति में है कि हमारे कवि का मसय १३५२ ई. और १४४८ ई. के मध्य का है। सन् १४४८ ई. के बाद के व्यक्तियों के साथ जो विद्यापति की समसामयिकता को जोड़ दिया जाता है वह सर्वथा भ्रामक हैं।" डॉ. विमानबिहारी मजुमदार सन् १४६० ई. के बाद ही महाकवि का विरोधाकाल मानते हैं। डॉ. शिवप्रसाद सिंह विद्यापति का मृत्युकाल १४४७ मानते है।

महाकवि विद्यापति ठाकुर के पारिवारिक जीवन का कोई स्वलिखित प्रमाण नहीं है, किन्तु मिथिला के उतेढ़पोथी से ज्ञात होता है कि इनके दो विवाह हुए थे। प्रथम पत्नी से नरपति और हरपति नामक दो पुत्र हुए थे और दूसरी पत्नी से एक पुत्र वाचस्पति ठाकुर तथा एक पुत्री का जन्म हुआ था। संभवत: महाकवि की यही पुत्री 'दुल्लहि' नाम की थी जिसे मृत्युकाल में रचित एक गीत में महाकवि अमर कर गये हैं।

कालान्तर में विद्यापति के वंशज किसी कारणवश (शायद यादवों एवं मुसलमानों के उपद्रव से तंग आकर) विसपी को त्यागकर सदा के लिए सौराठ गाँव (मधुबनी जिला में स्थित समागाछी के लिए प्रसिद्ध गाँ) आकर बस गए। आज महाकवि के सभी वंशज इसी गाँव में निवास करते हैं।

Vidyapati Kavita : sakhi he hamar dukhak nahi or

Vidyapati Kavita : sakhi he hamar dukhak nahi or
सखि हे हमर दुखक नहि ओर [ महाकवि विद्यापति ]
हे सखी ! हमर दुखक कोनो अंत नहि छैक । ई मेघौन समय, भादो मास आ ताहि पर सं पहु बिहिन सुन हमर घर । ई मेघ रहि रहि जोर सं गरजि रहल अछि आ चारु कात अन्हार केने चलि जाइत अछि । सम्पूर्ण धरती पर बरखा भय रहल छै । एहन समय पहु पहुनाइ क’ रहल छथि आ ई कामदेव अपन अमोघ बाण सं हमरा बेधने जाइत अछि । सैकड़ों बज्र खसैत देखि हमर मोन मयुर जकाँ नाचि रहल अछि । ई मत्त बेंग सभ टर्र टर्र करैत डाकनि द’ रहल अछि जाहि सं लगैए जे हमर छाती फाइट जैत । मेघ तेहन घटाटोप क’ के आयल अछि जे चारुकात भीषण अन्हार पसरि गेल छै आ जकर डरे बिजली सेहो कांपि रहल छैक । विद्यापति कहैत छथि जे एहन समय मे पहु बिना कोना दिन-राति कटतीह ।Maithili Kokil mahakavi vidyapati

Vidyapati kavita : आजु नाथ एक

Vidyapati kavita : आजु नाथ एक
आजु नाथ एक [ महाकवि विद्यापति ]
एहि गीतक रचनाकार महाकवि विद्यापति छथि । प्रस्तुत... गीत शिव स्तुति, भक्ति पक्षक थिक । पार्वती शिव सं कहैत छथिन जे-हे नाथ । आइ एक महा ब्रतक दिन छैक जाहि सं हमरा महा सुखक अनुभव भ’ रहल अछि । हे शिव आहाँ नटराजक भेष धारण करू आ डमरू बजा तांडव नृत्य करू । शिव कहैत छथिन जे हे गौरा आहाँ जे हमरा नाच’ कहैत छी से हम कोना नाचब । कारण नाच सं हमरा चारिटा खतरा सं हम चिंतित छी । जाहि सं बाचब मोश्किल अछि । नृत्यक कारण चान सं अमृतक बूँद धरती पर टपकत जाहि सं बघम्बर सजीव भ’ उठत । सजीव भेलाक बाद बाघ बसहा क’ खा जायत । दोसर जटाजूट सं सांप ससरि पृथ्वी पर विचरण करत आ जेकर फल होयत जे बेटा कार्तिक क पोसल मयुर ओ खा जायत । तेसर जटा सं गंगा छिलकि पृथ्वी जल सं भरि जायत । ओ गंगा सहस्त्रमुखी भ’ बहय लगतीह । एहि स्थिति के सम्हारब पार नहि लागत । चारिम मुंड माल खसि बिखरि जायत आ सभ जीबित भ’ उठत । मसानी जागि जायत । तखन आहाँ एत’ सं पड़ा जायब । जखन आहाँ पड़ा जायब तखन ई नृत्य के देखत? ई गीत विद्यापति गओलनि आ कहलनि जे शिव पार्वतीक मानक रक्षा करैत नृत्य सेहो केलनि तथा संभावित खतरा क’ सेहो बचा लेलनि ।
Maithili Kokil mahakavi vidyapati

Vidyapati Kavita : Madhav Hamar Ratal

Vidyapati Kavita : Madhav Hamar Ratal
माधव हमर रटल दुर देश [ महाकवि विद्यापति ]
प्रस्तुत रचना महाकवि विद्यापति द्वारा ...रचित कएल गेल अछि । एहिठाम माधबक तात्पर्य प्रियतम सं अछि । नायिकाक प्रियतम दुर देस अर्थात परदेस मे रहैत छनि । प्रियतमक कुसल-छेम कहय बाला नायिका क’ कियो नहि भेटैत छनि । प्रियतम लाख कोस दुर रहथु मुदा जुग जुग जिबउथ । ई त हमर अभाग अछि जे ओ हमरा सं फराक छथि, एहि मे हुनकर कोनों दोस नहि छनि । दैब हमर करमे बाम क’ देलनि तैं ने ओ हमर सभटा नेह आ पिरीत बिसरि गेलाह । हृदय दुःख-वेदना सं भरि गेल अछि ओ वेदना तीर जका बेधने जा रहल अछि । ठीके अनकर दुःख के आन की वुझतैक । कवि जयराम विद्यापति कहैत छथि तखन त एहि दुःख मे राजा सेहो किछु नहि क’ सकैत छथि कारण हिनकर दैबे वाम भय गेल छथिन ।

Maithili Kokil mahakavi vidyapati 

Vidyapati kavita : Ugna Re mor

Vidyapati geet : Ugna re Mor
उगना रे मोर कत’ गेलाह [ महाकवि विद्यापति ]
विद्यापति महादेबक एहन भक्त रहैथ जे ओ विद्यापतिक ओतय नोकर बनि रहय लगलाह । मुदा भेद फुजला पर ओ विद्यापति ओतय सं अलक्षित भ’ गेलखीन । विद्यापति बताह जकाँ करय लगलाह एबं ओही अबस्था मे पदक रचना करय लगलाह, सैह पद थीक उगना रे मोर कतय गेलाह । हमर उगना कतय चलि गेलह ? हे शिव अहाँ कतयचलि गेलाह, हे शिव तोरा की भ गेलह ? भांग नहि झोरी मे भेटैत छलह त’ कोना रुसि रहैत छलह आ जखने ताकि हेरि क’ आनि दैत छलियह त’ कोना खुशी भ’ जायत छलह । से तू कत’ चलि गेलह ? जे कियो हमरा उगना क’ पता कहत ओकरा हम कंगना उपहार मे देबनि । हे शिव त’ भेट गेलाह, हे वैह नंदन बन मे छथि । हे देखू, गौरियो प्रसन्न भ’ उठलीह । हमरो क्लेश मेटा रहल अछि । हमरा त’ उगनेटा सं काज अछि । तीनू लोकक ई राज-पाट हमरा लेल हितकर नहि अछि ।

Maithili kokil mahakavi Vidyapati

Vidyapati Kavita : chanda Jani Ug aa bhavartha

aaha sab ka vidyapati geet ta nik jarur lagat het . maithili ka har ghar me vidyapati ka geet bhor aa shanjha jarur gel jayat chiya . hum yahi series ka sahayata sa vidyapati geet ka aarth bujbay ka koshish keloy han , ye likhal gel han rajni aa satya narayan jha ka davra .

Vidyapati Kavita : chanda Jani Ug

चंदा जनि उग [ महाकवि विद्यापति ]
हे चान, आजुक राति तों नहि उगह । हम पिया क’ चिट्...ठी लिख क’ पठेबनि । अर्थात आजुक राति क’ अन्हारे रह दएह, जाहि सं हम अभिसार क’ सकी । साओनक मास छैक, हम साओन सं सिनेह करैत छी । एहि मे अभिसार करब बर सुलभ छैक । अर्थात साओन मास मे मेघौन रहने अन्हार रहैत छैक एहि मे हम प्रसन्न भ’ अभिसार रचायब । हम राहु क’ बुझा सुझा क’ मिला लेब । चान क’ ओ राहु घोंटि जायत ओ उगलत नहि । हे जलधर मेघ, तों हमरा सं कोटि कोटि रत्न ल’ लएह आ आजुक एहि राति क’ अन्हार घुप्प क’ दएह । विद्यापति क’ कहब छनि जे अभिसार क’ ई शुभ समय थिक । नीक लोक एहने समय मे परोपकार करैत छैक ।
भावार्थ: प्रियतम सं अभिसार अर्थात प्रेम अन्हारे मे करब नीक लगैत छैक ।

Maithili Kokil mahakavi vidyapati

Vidyapati kavita : Mora Re Aanganma aa Arth by rajni pallabi

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Vidyapati kavita : Mora Re Aanganma

मोरा रे अ॑गनमा चनन केर गछिया [ महाकवि विद्यापति ]
मिथिला अंगना मे, ताहू मे केराक... अथबा चाननक गाछ पर यदि कौआ कुचरय त बुझू कतौ सं शुभ समाचार आयत । एहि ठाम महाकवि विद्यापति तदनुसार गीतक रचना केलनि अछि ।
हमरा आँगन क’ चाननक गाछ, ताहि पर कौआ कुचरि रहल अछि । लगैत अछि कोनो शुभ समाचार अछि । रे कौआ तोहर लोल हम सोना सं मढ़ा देबौ जों हमर प्रियतम आइ आबि जाथि ! हे सखी बहिनपा सभ झूमरि, लोरी गबैत जाह ! आइ हम मदन क’ आराधना मे जा रहल छी । चारु दिस चंपा, भालसरी आदि फूल फुलायल अछि आ ताहि पर सं ई इजोरिया राति ! हम कोना क’ कामदेबक आराधना क’ सकब । किएक त’ एहि भेंटक त’ उपहार पैघ होयछ । रे कागा, खराब समय मे कियो हित नहि होयछ ! ई बात हम आंखि पसारि क’ देख लेलियैक अछि । विद्यापति कवि गबैत कहैत छथि जे अहाँक पहु गुणक आगर छथि जेना राजा भोगेश्वर छथि तथा जे पद्मा देवीक संग रमण करैत छथि ।
विद्यापतिक गीत कतओक श्रेणी मे बाँटल अछि मुदा हमरा लोकनि जाहि परियोजना पर काज क’ रहल छी अर्थात महकविक जे गीत अर्थक संग फेस बुक पर द’ रहल छियैक ओहि गीत क’ मुख्यतः तीन श्रेणी यथा श्रृंगार, विरह एबं भक्ति रस मे राखल गेल अछि । ”मोरा रे अंगनमा चनन केर गछिया”-विरह श्रेणी मे अबैत छैक ।

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Vidyapati kavita : Nav Barndavan nav nav tarugan aa aarth

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Vidyapati kavita : Nav Barndavan nav nav tarugan

नव बृन्दावन नव नव तरुगन [ महाकवि विद्यापति ]
वसंत अएबाक कारण वृन्दावन नब लागि रह...ल अछि । नब नब गाछ मे नब नब फूल फुला गेल अछि । बसंत सेहो नब अछि । मलयानिल (दक्षिण-पवन) सेहो नब । एहन स्थित मे भमराक नब समूह माति गेल अछि । यमुना-तट परक शोभा-संपन्न कुंज-वन मे नब-नब प्रेम मे विभोर भ’ श्री कृष्ण विचरण क’ रहल छथि । आमक नब नब मज्जरक मधुआ सं माँतल, कोइलीक नब झुण्ड गाबि रहल अछि । नवयौवना सभक चित उमतल छै । एहि नब रसक संचार सं ओ सभ कानन दिस दौगि परल अछि । युवराज श्री कृष्ण नब छथि । गोपी सभ सेहो नब छथि । तैं ओ नब-नब ढंगे आपस मे हिलि-मीलि रहलि अछि । विद्यापतिक मति सेहो माँतल छनि, एहि मत्त समाज मे ।


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